सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक महत्वपूर्ण सुनवाई में उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें केंद्र सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP) को तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में लागू करने की मांग की गई थी। अदालत ने स्पष्ट किया कि वह किसी राज्य को शिक्षा नीति लागू करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती, क्योंकि यह राज्यों का विशेषाधिकार है।
क्या थी याचिका में मांग और तर्क?
यह याचिका सुप्रीम कोर्ट के वकील जी.एस. मणि ने दाखिल की थी। उन्होंने कहा कि तीनों राज्य सरकारें जानबूझकर NEP को लागू नहीं कर रहीं, और इसके पीछे “हिंदी थोपे जाने” का हवाला देकर लोगों को उनके मौलिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है। याचिका में दावा किया गया कि मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा संविधान में दिए गए अधिकार का हिस्सा है, और NEP इसका जरिया बन सकती है।
‘राज्यों की स्वायत्तता सर्वोपरि‘
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “आप दिल्ली में हैं, हिंदी पढ़ना चाहते हैं तो पढ़िए… कौन रोक रहा है?” अदालत ने यह भी जोड़ा कि नीति बनाना और उसे लागू करना राज्य सरकारों का संवैधानिक अधिकार है, और कोर्ट इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
कोर्ट के अनुसार, संघीय ढांचे की भावना के तहत केंद्र और राज्यों के अधिकार स्पष्ट हैं, और शिक्षा जैसे विषय पर राज्य अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार निर्णय ले सकते हैं।
राज्यों का लगातार विरोध: क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृति की चिंता
तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल शुरू से ही NEP 2020 का विरोध करते रहे हैं। उनका आरोप है कि इस नीति में क्षेत्रीय भाषाओं और सांस्कृतिक विविधता को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया है।
- तमिलनाडु का कहना है कि त्रिभाषा फॉर्मूला राज्य की भाषा नीति के खिलाफ है।
- केरल इसे राज्य के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप मानता है।
- पश्चिम बंगाल का रुख भी यही रहा है कि यह राज्यों की स्वायत्तता को कमजोर करता है।
इन राज्यों ने अपनी-अपनी स्वदेशी शिक्षा नीतियों पर काम जारी रखा है, जो उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक ज़रूरतों के अनुरूप हों।
क्या होगा आगे? याचिका खारिज होने के बाद की स्थिति
सुप्रीम कोर्ट द्वारा याचिका खारिज किए जाने के बाद अब यह साफ हो गया है कि NEP का कार्यान्वयन पूरी तरह से राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर है।
हालांकि, इससे केंद्र और राज्यों के बीच इस मुद्दे पर तनाव और बढ़ सकता है, खासकर तब, जब केंद्र पूरे देश में एक समान शिक्षा ढांचे की दिशा में काम कर रहा है। शिक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि यह फैसला राज्यों को नीति निर्धारण में अधिक आत्मनिर्भर और मजबूत बनाता है, लेकिन इसके साथ ही यह चुनौती भी पेश करता है कि देशभर में शिक्षा की गुणवत्ता और दिशा एक समान कैसे हो।